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युक्लिपटुस / कहानी

आस-पास के समस्त गाँवों के खेतों की सिंचाई के लिए धसना नहर से निकाली गई इसकी छोटी सी ब्रांच, जिसे गाँव की भाषा में बम्बा कहते हैं; में एक टूटे हुए घड़े से तीव्रता से टकरा-टकरा कर जोशीला जल इस प्रकार से बहता जा रहा था जैसे कि, कोई स्त्री अपने कुएं से पानी निकालकर मिट्टी के बने हुए घड़े में भर रही हो और उसकी क्षणिक कड़ड़..कड़ड़ जैसी आवाजें इस सांझ में पेड़ों पर आये हुए बसेरों के पक्षियों का मन जैसे घबरा रहीं हों. शाम हो चली थी और दूर से खेतों से चरकर आते हुए ढोरों के पैरों से उड़ती हुई धूल का धुंआ सारे वातावरण में फैलता जा रहा था. आकाश में पक्षियों के रेले अपने मार्ग की तरफ उड़े चले जाते थे. एक बड़ी ही अजीब बात थी जो मैं अब महसूस करने लगा था; कि मेरे आस-पास से लोग गुज़र रहे थे, आते-जाते मुझे एक निगाह देखते भी थे, परन्तु कोई भी मुझसे तनिक भी सम्बोधित नहीं होता था. जाने कैसी निष्ठुरता थी इन सबकी मेरे प्रति? मैं कोई भी निर्णय खुद से नहीं ले पा रहा था. मुझे लगता था कि जहां ये सब जा रहे थे; पास ही के गाँव के रहनेवाले लोग बड़े ही अजीब-से थे. एक दम स्पन्दन्हीन- ठंडे-ठंडे-से.


मुझे इसी पास के गाँव में ही,जिसका नाम 'ठाकुर छत्रपाल का पुरा' था, में जाना था. ज़ाहिर था कि जब नाम ऐसा है तो इन्हीं ठाकुर छत्रपाल सिंह ने जो मेरे पर बाबा हुआ करते थे, उन्होंने ही इस गाँव को बसाया था. मगर मेरी यहाँ किसी से जान-पहचान नहीं थी. कोई मुझे जानता भी नहीं था. मुझे भी केवल इतना ही याद था कि, मेरा भी एक पुश्तैनी घर इसी गाँव में है और यहीं पर मेरे पूर्वजों के वे खेत भी थे जो नियमानुसार, कायदे से अब मेरी सम्पत्ति में आ चुके थे. अब मैं ही इनका मालिक था. यहीं पर मैं पला-बढ़ा भी था, पर न जाने ऐसा क्या कुछ हुआ था कि, मेरे पिता भक्त सिंह ने मुझे आठवीं कक्षा पास करने के बाद ही शहर भेज दिया था और फिर अपने जीते-जी यहां पर कभी भी नहीं आने दिया था. लगभग अपनी चौदह वर्ष की उम्र में मैने अपना घर छोड़ा था और आज जब दोबारा आया था तो पूरे तीस वर्षों के एक लम्बे अंतराल के बीत जाने बाद. एक जमाना, एक युग-सा बीत चुका था. सब कुछ, बहुत बदला-बदला-सा, एक नया-सा कस्बा जैसा मुझे अपना गाँव दिख रहा था.
मेरा यहाँ अपने इस गाँव में आने और अपने खेतों, हवेलीनुमा घर और अन्य सम्पत्ति का लेखा-जोखा लेना; यह तो कारण था ही, मगर मन में एक जिज्ञासा भी थी कि इस गाँव में मैं चाहे किसी से मिलूं या न मिलूं, मगर अपने साथ पढ़नेवाली रुकैया से जरुर मिलूंगा और उसके बारे में पता भी लगाउंगा कि अब वह कहाँ पर है. मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालुम था, मगर गाँव की लड़की होने के कारण यह तो विश्वास था ही कि, उसका विवाह हो चुका होगा. यहीं किसी न किसी आस-पास के गाँव में वह रहती होगी. उसका पति निश्चित रूप से किसान ही होना चाहिए और वह भी खेतों में ही काम आदि करती होगी. कम-से-कम तीन-चार बच्चों की वह मां भी बन चुकी होगी?

वातावरण में शाम की मिट्टी से भरी धुंध, गाय-बैलों, भेड़-बकरियों और नंगे पैरों के साथ उड़ाती हुई धूल के कारण, पसीने से मिली हुई बदन में भरी हुई गंध भी अब जैसे बोझिल लग रही थी. मुझे प्यास लगने लगी थी. अपने गाँव में पहुंचने की शीघ्रता और आराम करने की चाह; से मैं छटपटाने लगा था. बस से उतरकर, हाथ में बहुत बड़ा नहीं, मगर छोटा भी नहीं, अपना सूटकेस थामे हुए मैं चुपचाप चला जा रहा था. बस वाले ने मुझे सड़क के किनारे ही उतार दिया था. अचानक से मैंने अपने आने का कार्यक्रम बनाया था. मेरे आने का किसी को कुछ भी मालुम नहीं था, सो कोई सहायक अथवा सहायता भी मेरे लिए नहीं थी; मुझे पैदल ही जाना था. गाँव की सूखी, रेतीली धूल में अपने मंहगे 'स्पोर्ट्स शूज़' के निशानों को छोड़ते हुए.
गर्मी अधिक से अधिक तो थी, साथ ही जानलेवा भी; मैं थक गया था, सो अचानक ही मैं पास ही में बनी एक टूटी-सी झोपड़ी के पास बनी हुई मेड़ पर, अपना सूटकेस एक किनारे रखकर बैठ गया. बैठे हुए कुछेक क्षण बीते होंगे कि, इतनी-सी देर में चार-पांच आदमी, जवान, मुझे एक अजनबी की तरह घूरते हुए निकल गये. सब ने जाते हुए एक नज़र देखा तो मुझे, मगर पूछा किसी ने भी नहीं. मेरा ही गाँव था. लेकिन कितना अजीब, किसकदर अजीब, संदिग्ध से लोग भी थे. किसी एक ने झूठे से भी नहीं पूछा था कि, 'कौन हो? कहाँ से आये हो? कहां जाना है, आदि? सचमुच, मैं उन सब के लिए अजनबी, अनजान और अपरिचित ही था. कोई क्यों बात करता मुझसे?
मैं अभी बैठा ही हुआ था कि तभी अचानक से एक दुबला-पतला, लेकिन अपनी उम्र से कहीं अधिक लम्बा-सा मासूम, नादान लड़का मेरे सामने खड़ा हुआ मुझे बड़ी ही हैरत के साथ देख रहा था. वह चुप खड़ा हुआ था. उसे देख कर मैंने उससे पूछा,
'तुम यहीं-कहीं पास ही में रहते हो न?'
'?'- उस लड़के ने हां में सिर हिलाया.
'कहाँ पर?'
लड़के ने उसी झोपड़ी की तरफ इशारा किया, जिसके पिछवाड़े मैं बैठा हुआ था और जिसकी कच्ची मिट्टी की दीवार पर चूने की सफेदी से लिखा हुआ था- 'मेरा भारत महान.' यह एक राजनीतिक नारा था, जो अपने समय में किसी चुनाव के होने की याद ताज़ा करा रहा था.
'?'- उसका इशारा देख कर मैं चौंका तो मगर कुछ और बोलता, इससे पहले मैंने उस बच्चे से गुजारिश की और कहा कि,
'कहीं से एक गिलास पानी मिल सकता है मुझे. बहुत प्यास लगी है?'
उस लड़के मेरी बात पर फिर से हां में सिर हिलाया तो मैंने कहा कि,
'तो फिर ला दो.'
तब वह लड़का बिजली की रफ्तार से अपनी झोपड़ी में गया और करीब सात मिनटों के बाद ही एक बाल्टी में पानी भर कर लाया. साथ में एक लोटा और गुड़ भी लाया. मेरे सामने ही उसने लोटे को वहीं मिट्टी से मांजकर न केवल साफ़ किया, बल्कि उसे ऐसा चमका दिया कि उसकी पेंदी में कोई भी अपना स्वरूप सहज ही देख सकता था. फिर लड़के ने बाल्टी में से मुझे पानी दिया. मैंने पानी पिया तो लगा कि जैसे बदन में किसी ने फिर से नया दम फूंक दिया है. पानी बिलकुल ठंडा था. ज़ाहिर था कि, वह लड़का नया, तरो-ताज़ा पानी कुएं में से भरकर लाया था. ठंडा, ताज़ा पानी पीकर, मीठा गुड़ खाकर मैं फिर से पानी के समान ही तरो-ताज़ा हो चुका था. तब बाद में मैंने उस लड़के से पूछा कि,
'क्या नाम है तुम्हारा?'
'युक्लिपटुस.'
'?'- उस लड़के का यह नाम सुनकर मैं सहसा ही चौंक गया. मेरा चौंकना बहुत स्वभाविक भी था, क्योंकि इस अनोखे नाम से मेरा बहुत गहरा सम्बन्ध था. कभी किसी ने मुझको ही, मेरा ये विशेष नाम दिया था.
'तुम्हें मालुम है कि, तुम्हारे इस विशेष नाम 'युक्लिपटुस' का क्या अर्थ होता है?'
'हां.'
'क्या?'
'नीलगिरी- सफेदे का पेड़.' लड़के ने बोला तो मैंने तुरंत ही फिर से आगे पूछा. मैंने बोला कि,
'किसने बताया तुम्हें इसका अर्थ.'
'स्कूल में मास्टर जी ने बताया था.'
'अच्छा !'
मैं कुछेक क्षणों के लिए खामोश हो गया. सोचने लगा कि, 'युक्लिपटुस' नाम क्या यहाँ पर बहुत प्रचलित है? मुझे तो यह नाम वर्षों पहले रुकैया ने दिया था. मैं अपने स्वास्थ्य की दृष्टि से दुबला बहुत था, मगर लम्बा कहीं अपनी उम्र से अधिक. वह मुझे अक्सर ही पहले से चिढ़ाती थी. कहा करती थी कि, 'तुम कितने अधिक लम्बे हो. बांस के समान, ताड़ जैसे. जमीदार के पुत्र हो और वह भी सूखे, बांस, ठठेरे की तरह- कुछ खाया-पिया भी करो. तब मैं भी बदले में उसे चिढ़ा देता था. कहता था कि, 'तू, कौन से अफसरा-सी दिखती है? तू भी तो है, काली-कलूटी, तवे के समान, कारोंच सी. जहां भी आ जायेगी तो कितना भी उजाला क्यों न हो, पल भर में अन्धेरा कर देती है. . .'
'बाबू जी !' युक्लिपटुस नाम के उस लड़के ने मुझे टोका तो मैंने जैसे तुरंत हड़-बड़ाते हुए, चौंकते हुए उसे देखा तो उसने मुझसे आगे पूछा,
'आपको नींद आ रही है?'
'हां, कुछ-कुछ. थका हुआ हूँ न, इसलिए आँखें बंद हो गई थीं.'
'?'- युक्लिपटुस कुछ भी नहीं बोला. वह केवल मुझे एक संशय से देखने लगा.
तब मैं अपने स्थान से उठा. अपना सूटकेस उठाया और उस लड़के से सम्बोधित हुआ,
'मुझे अब जाना चाहिए.'
'आपको जाना कहाँ है?' युक्लिपटुस ने मुझसे पूछा तो पहले तो मैंने उसे आश्चर्य से देखा, फिर उसे बताया कि,
'इसी ठाकुर छत्रपाल सिहं का पुरा गाँव में, जमींदार रतनपाल सिंह की हवेली में.'
'?'- मेरा इतना कहना भर था कि, युक्लिपटुस तुरंत ही मेरे पैरों पर जैसे गिर पड़ा और मेरे पैर छूने लगा. उसे ऐसा करते हुए मैं तुरंत ही अपने स्थान से हटा और उससे कहने लगा कि,
'अरे . . .अरे ! तुम यह क्या करते हो? मैं कोई ईश्वर नहीं, बल्कि तुम्हारी ही तरह एक मनुष्य हूँ. इंसान हूँ. तुम पैर छूकर, सामने गिरकर, ऐसा सिजदा केवल अपने ईश्वर को ही किया करो.'
'आप तो हमारे माई-बाप हैं. हमारे गाँव के प्रधान हैं, जमींदार हैं; मैं आपको प्रणाम, सम्मान न करूं तो किसको करूं?'
'चलो ठीक है. अब मुझे जाने दो.' कहकर मैंने अपना सूटकेस उठाया तो युक्लिपटुस ने मेरे हाथ से सूटकेस ले लिया और अपने सिर पर रखते हुए बोला,
'मैं पहुंचाऊंगा आपको. आप केवल चले चलिए.'
'देखो, मेरी बात सुनो.' मैंने युक्लिपटुस को रोकना चाहा तो उसने कहा कि,
'अब ऐसा नहीं हो सकता है. पहले की बात और थी. अब मालुम पड़ गया है, तो मैं अपने सामने आपको बोझा नहीं उठाने दूंगा.' कहते हुए युक्लिपटुस लम्बे-लम्बे डग भरने लगा.
फिर लगभग पन्द्रह-बीस मिनट के बाद ही हम दोनों गाँव की एक-अकेली उस हवेली के बड़े लोहे के सींखचों वाले द्वार के सामने खड़े थे, जो दूर से ही अपनी जमीदारी की भली-बुरी प्रतिष्ठा का जैसे बखान दे रही थी. युक्लिपटुस ने मेरा सूटकेस नीचे उतारा और मुझसे कहा कि,
'अन्धेरा हो, इससे पहले ही मैं चला जाता हूँ.'
उसने बहुत मना किया. अपने हाथ जोड़े, इनकार किया; लेकिन मैंने उसकी मेहनत, इंसानियत और प्रेम के बदले में उसे पचास रूपये देकर ही जाने दिया. जाने से पहले युक्लिपटुस ने हवेली में रह रहे अन्य नौकरों आदि को मेरे बारे में बताया तो पलक झपकते ही जैसे सारी हवेली में भरे हुए सन्नाटे में जैसे कहीं भूचाल आ गया था. दो-चार नौकर और चौकीदार थे, मगर हवेली को ठीक-ठाक करने और संवारने के लिए यों भाग रहे थे कि, जैसे उसमें बीस-पच्चीस मुलाज़िमों की भीड़ लगी हुई हो.
हवेली में मेरा कमरा ठीक किया गया. भोजन आदि का प्रबंध हुआ. नहाने आदि के लिए पानी गर्म नहीं बल्कि, गुनगुनाकर हल्का गर्म किया गया. फिर खाना आदि से निवृत होकर मैंने सभी मुलाज़िमों से बात की. उनका हाल-चाल पूछा. उन्हें अपने अचानक से आने का कारण बताया. और फिर, दूसरे दिन हवेली में मुनीम जी को भी बुलावा भेज दिया गया. रात भर हवेली का सबसे पुराना और ईमानदार, भरोसेमंद और सबसे अधिक वयोवृद्ध सेवक तिमाईधन मेरे पास बैठा रहा और पिछले बीसियों वर्षों की अच्छी-बुरी सारी कहानियाँ मुझसे साझा कीं. उन्हीं कहानियों में एक दास्ताँ उस रुकैया की भी थी जिसका वर्णन इस कहानी में पहले किया गया है और जो मिडिल स्कूल तक मेरे साथ-साथ पढ़ी थी.


करीब सुबह के चार बजे तिमाईधन उठकर चला गया था, मगर मेरी आँखों के सामने रुकैया का चेहरा जैसे हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. . .'
'. . . पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा तक मैं और रुकैया साथ-साथ स्कूल जाते थे. आपस में खेलते और झगड़ते थे. एक दूसरे को चढ़ाते थे. लेकिन, हम दोनों के मध्य एक बात जरुर थी, हम कितना भी लड़ते, झगड़ते, आपस में कभी-कभार मार-पीट भी कर लेते थे, पर बाद में जैसे सब कुछ भूलकर एक हो जाते थे. वह मुझको कभी बांस, कभी ठठेरा, कभी सफेदा और अक्सर ही युक्लिपटुस कहकर बुलाती थी. मैं भी उसको कभी उसका नाम रुकैया या फिर अक्सर ही कलुइया नाम से सम्बोधित करता था. धीरे-धीरे किसी तरह जीवन के ये पांच वर्ष, प्राइमरी पाठशाला के समाप्त हो गये. हम दोनों ने दूसरे मिडिल स्कूल में प्रवेश किया. नये स्कूल में, नई कक्षा में आने का उल्लास और खुशी तो थी ही, लेकिन साथ में अनेकों बदलाव भी आ चुके थे. सबसे अधिक बदलाव रुकैया में आने लगा. वह अब बहुत कुछ समझने-सोचने लगी थी. ठाकुर और अनु-सूचित जैसे शब्दों का मापदंड करती थी. उम्र के हिसाब से भी वह पहले से अधिक सतर्क हो चुकी थी. उसके शरीर में वयोसंधि की तरफ बढ़ते हुए चिन्ह स्पष्ट होने लगे थे. अक्सर ही मुझसे कहने लगी थी;
'मुझसे दूर ही रहा करो अब.'
'पहले की बात और थी और अब बात कुछ और है.'
'चलो, गरीब-अमीर, किसान-जमीदार में अंतर न जानो लेकिन, तुम 'ठाकुर' और अनु-सूचित जैसे शब्दों का भेद तो समझते ही होगे?'    

'देखो, तुम्हारा तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, मगर मैं और मेरा गरीब परिवार अवश्य ही नाश हो जाएगा. मैं अब बड़ी हो गई हूँ, इसी कारण मेरे पिताजी आठवीं के बाद मेरा ब्याह करनेवाले हैं. उन्होंने मेरा वर ढूंढा ही नहीं बल्कि पसंद भी कर लिया है.'
'पहले मैं छोटी थी. मेरा मतलब हम छोटे थे. मिलते-बैठते, बातें करते और खेलते थे, पर किसी को गाँव में कोई भी हमसे मतलब नहीं था. लेकिन अब देखो तो सारे गाँव की नज़रे किस प्रकार से हम दोनों को चीरने जैसी लगती हैं. तुम्हारे पिता बहुत बड़े जमींदार ही नहीं हैं बल्कि, हमारे गाँव के प्रधान और कद्दावर नेता भी हैं. यह गाँव ही नहीं, आस-पास के सारे गाँवों से लेकर शहर तक में उन्हें कौन नहीं जानता है. हम जैसे लोग गाँव के लेखपाल से अगर खसरा-खतौनी की प्रतियां-नकलें आदि मांगे तो कम-से-कम पांच सौ रूपये खीस के और सौलह रूपये फीस के देने होते हैं. लेकिन तुम्हारे पिता मुंसिफ, कचहरी, जिलाधीश और कोर्ट का कोई भी कागज़ निकलवा लेना तो उनके बांये हाथ का खेल है. जरूरत पड़ने पर वह कोर्ट का फैसला तक बदलवा दें. अगर इतने से भी उनका काम न बने तो अपना काम करवाने के लिए चाहें तो किसी का भी. . .'
'किसी का भी . . .तो क्या? युक्लिपटुस ने एक संशय के साथ रुकैया की मध्य में ही रोकी गई बात पूरी करते हुए पूछा तो वह जैसे डरते हुए बोली,
'खून तक करवा दें.'
'खून?'
'हां, खून ही बोल रही हूँ. लाश तक का पता नहीं चलेगा. यह मैं नहीं, बल्कि जितनों को मैं जानती हूँ, वे लोग कहते हैं. इसलिए अब मुझसे मिलना-जुलना बंद करो. ईश्वर न करे, अगर कभी भी तुम्हारे पिता ने हम दोनों को यूँ एक साथ देख लिया तो समझना कि, मेरी लाश तक नहीं मिलेगी.'
और तब सचमुच ही रुकैया और युक्लिपटुस को उसके पिता जमींदार रतनपाल सिंह ने तब देख लिया जबकि, वे दोनों रहट के द्वारा निकलते हुए पानी को एक दूसरे पर उछाल-उछाल कर खेल रहे थे. रुकैया और युक्लिपटुस तब आठवीं कक्षा के छात्र थे. दोनों युवा नहीं थे, मगर इतने छोटे भी नहीं थे कि उन्हें बालकों की संज्ञा दी जा सकती. दोनों के बदन और कार्य, सोचना-विचारना इस बात की साक्षी थे कि, युवा होने की पायदानों में अब मात्र एक-दो सीढ़ियाँ बाकी रह गई थीं. रतनपाल सिंह ने अपनी कार रुकवाई और युक्लिपटुस से रुकैया के बारे में पूछा कि, 'यह लडकी कौन है.' बाद में उसे शीघ्र ही हवेली पहुंचने को कहा.
जमींदार, रतनपाल सिंह को देख कर रुकैया का भय के मारे सारा बदन अंगारे के समान जैसे लाल हो गया. घर आकर रतनपाल सिंह ने अपने बेटे क्षेत्र पाल सिंह (युक्लिपटुस) को अपने पास बुलाया और आठवीं कक्षा के बाद उसे शहर के 'कान्वेंट' ईसाई अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शहर में रहते हुए आगे पढ़ने के बारे में अपना इरादा बता दिया. युक्लिपटुस को सुनकर अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन वह करता भी क्या? पिता का आदेश था, जब समय आयेगा, तब जाना होगा तो वह चला भी जाएगा. अभी तो सालाना परीक्षाएं होंगी, स्कूल गर्मी की छुट्टियों में बंद रहेंगे. फिर जुलाई में दोबारा नये स्तर के रूप में खुलेंगे. इस प्रकार से अभी तीन-चार महीने हैं; यही सोचकर उसने अपने मन को हल्का किया. मगर एक दिन युक्लिपटुस ने रुकैया को बताया कि, अगले वर्ष वह गाँव के स्थानीय स्कूल में नहीं पढ़ सकेगा. उसके पिता बहुत अच्छी शिक्षा के लिए किसी बड़े शहर के अंग्रेजी माध्यम के ईसाई स्कूल में भेजने का प्रबंध कर रहे हैं. लगभग सारे इंतजामात हो चुके हैं. वहां पर उसे बोर्डिंग में रहते हुए पढ़ना होगा.
'?'- रुकैया अचानक ही चुप हो गई. ज़ाहिर था कि उसे युक्लिपटुस का यूँ इस तरह से गाँव के बाहर जाना सुनकर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था. मगर रुकैया ने स्वयं में संयम बनाये रखा. बड़ी देर तक वह चुप तो रही, लेकिन खुद को बाद में सामान्य बनाते हुए वह युक्लिपटुस से बोली,
'तो तुम ईसाई स्कूल में पढ़ोगे?'
'हां. पिताजी की यही मर्जी है.'
'सुना है कि, ईसाईयों के अंग्रेजी स्कूल में अंग्रेजी में तो पढ़ाते ही हैं, मगर साथ में वहां पर हर समय सभी को अंग्रेजी ही बोलनी पड़ती है. अंग्रेजी में ही सारी बात-चीत आदि करनी पड़ती है. हिन्दी का वहां कोई काम नहीं होता है.'
'हां, यह तो है. लेकिन हिन्दी अपने देश की राष्ट्र भाषा है, इसलिए हिन्दी विषय का एक पीरियड बारहवीं कक्षा तक होना अनिवार्य है.'
'और मैंने यह भी सुना है कि, वहां पर ईसाई ननें ही पढ़ाती हैं. वे अपने बाल नहीं रख सकती हैं, इसलिए सिर के सारे बाल उन्हें मुड़ाने पड़ते हैं?" रुकैया ने कहा तो युक्लिपटुस ने उसे बताया कि,
'यह तो उनके 'सिस्टम' और स्कूल के प्रबंध का एक नियम है. छात्रों के लिए भी बहुत सारे नियम हैं. जब पढ़ना वहां है तो नियम भी मानने पड़ेंगे.'
'ईसाई स्कूलों में उनका रहन-सहन, खान-पान, धर्म-आराधना आदि सभी कुछ ईसाईयत के हिसाब से ही होता है. तुम अपनी पूजा-पाठ कैसे करोगे, मन्दिर आदि में कैसे जाया करोगे. होली, दीवाली आदि अपने हिन्दू त्योहारों को कैसे मनाओगे?' रुकैया ने हैरानी से पूछा तो युक्लिपटुस ने उसे बताया. वह बोला कि,
'ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो आस्था की बात है. जैसा विश्वास है, उसे मानो. कोई भी रोक-टोक करनेवाला नहीं है.'
'मैंने सुना है कि, एक लम्बे समय तक रहने पर हर किसी के संस्कार बदल जाते हैं. तुम भी जब तक अपनी पढ़ाई पूरी करके निकलोगे तो ईसाई बन चुके होगे?'
'हो सकता है. एक ही स्थान पर लम्बे समय तक रहते हुए इंसान के संस्कारों में परिवर्तन तो आता ही है. रही बात मेरी, तो मैं ईसाई तो नहीं बन सकता हूँ, पर हां वहां रहने पर काफी-कुछ ईसाई संस्कार, स्वभाव्, बात करने का ईसाई तरीका आदि, बहुत कुछ मेरे जीवन में समा जाए. और वैसे भी जो अच्छी-अच्छी बातें हैं, वे चाहे किसी भी धर्म-समाज की ही क्यों न हो, उन्हें अपनाने में कोई बुराई तो नहीं है.'
उसके बाद दोनों की बातें समाप्त हुई. शाम हो चली थी. आस-पास के पेड़ों आदि पर अपने बसेरे के लिए कबूतरों के झुंड अपने पंख फड़-फड़ाने लगे थे. अन्धेरा बढ़ने लगा था. रुकैया उठकर अपने घर चली गई तो युक्लिपटुस भी जैसे बुझे मन से हवेली में आ गया.

        सालाना परीक्षाएं जब तक हुई और जब तक समाप्त नहीं हो गईं, तब तक रुकैया और युक्लिपटुस, दोनों का वही पुराना रवैया बना रहा. दोनों ही पहले के समान मिलते-बैठते, बातें करते; मगर कभी भी दोनों में से एक भी अपने मन की भावनाओं को उजागर नहीं कर सका. दोनों ही एक-दूसरे को जानते थे. मानते थे, समझते थे और पसंद भी करते थे; मगर अपने मन में एक-दूसरे को आकर्षित करनेवाली भावनाओं का इज़हार कोई भी नहीं कर सका.
सालाना परीक्षाएं हो गईं. स्कूल बंद हो गये. गाँव में रहते हुए रुकैया युक्लिपटुस को कभी मिलती तो कभी नहीं भी मिलती. जब भी मिलती तो दोनों के मध्य एक-दो बातें हो जातीं. फिर एक दिन रुकैया काफी दिनों के लिए जैसे गायब-सी हो गई. काफी दिनों तक वह गाँव में नज़र ही नहीं आई. उधर युक्लिपटुस को उसके पिता ने शहर भेज दिया ताकि वह अपने अगले वर्ष की पढ़ाई के लिए उस ईसाई स्कूल और बोर्डिंग आदि को भी देखभाल ले. और जब युक्लिपटुस शहर से पूरे तीन महीनों के बाद गाँव वापस आया तो                           वह अचानक से नज़र आई तो युक्लिपटुस से नहीं रहा गया. वह उसे एकांत में एक सुरक्षित स्थान में ले आया और उस पर प्रश्नों की ताबड़-तोड़ बरसात-सी कर दी. उत्तर में रुकैया ने अपनी जुबान भी नहीं खोली. वह केवल रोती रही. आंसू बहाती रही. तब युक्लिपटुस ने उसे गौर से देखा. उसकी आँखों में बहुत कुछ पढ़ना और जानना चाहा. मगर सफल नहीं हो सका. तब उसने रुकैया को ध्यान से देखा. उसके बदन को निहारा और उससे पूछा कि,
'चलो, ठीक है. नहीं बताना चाहती हो तो मत बताओ. लेकिन यह तो बता दो कि, तुम कहीं भी मेहमानी खाने गई थीं तो क्या मोटी होने भी गई थी? तुम्हारा पेट क्यों बढ़ रहा है?'
'?'- रुकैया का चेहरा अचानक ही सफेद हो गया.
उसने फिर युक्लिपटुस की कोई भी बात नहीं सुनी और ना ही अपनी तरफ से कुछ कहा. वह फुर्ती से अपने स्थान से उठी और किसी हिरनी के समान तेज भागती-दौडती हुई सीधे गाँव में अपने घर चली गई. युक्लिपटुस बड़ी हैरानी के साथ, रुकैया की इस बदली हुई मुद्रा, हाव-भाव और तेज भागते हुए कदमों को देखता ही रह गया. इस दिन के बाद से युक्लिपटुस को रुकैया फिर कभी भी नहीं मिली. जुलाई के महीने में स्कूल खुलते, इससे पहले ही उसके पिता ने उसको उस बड़े महानगर के किसी अंग्रेजी माध्यम के ईसाई स्कूल में भेज दिया, जहां पर छात्रों के लिए रहने को बोर्डिंग/हॉस्टल की भी सुविधा थी. साथ ही उस महानगर में रतनपाल सिंह का अपना आधुनिक वस्त्रों का एक व्यापार भी चलता था. उनका उस शहर में एक बड़ा ही आलीशान शो-रूम था और एक भव्य दुकान भी थी. आनेवाले दिनों में अपने पिता का सारा कारोबार आदि उसे ही सम्भालना होगा; . . . सोचते हुए युक्लिपटुस कब सो गया., उसे ज़रा भी एहसास तक न हो सका.
दूसरे दिन हवेली में पिछले बीस सालों से मुनीमगीरी और एक प्रकार से लेखाकार का काम करते हुए मुनीम जी आये तो आरम्भिक नमस्ते आदि के बाद युक्लिपटुस ने पहले तो सारी जमीनों का हिसाब-किताब देखा. मतलब कि, उसकी अनुपस्थिति में कौन से जमीनें बेची गई और कौन सी खरीदी गई हैं, इस तरह की तमाम जानकारी युक्लिपटुस ने मुनीम जी से प्राप्त की. इतना सब देखते हुए उसने मुनीम जी से केवल एक ही सवाल किया. वह बोला कि, आज से बीस साल पहले मैं शहर गया था. और आज वापस आया हूँ. मुझसे पहले आप और पिताजी ही यह सब देखभाल रहे थे. लेकिन, एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि, पिताजी के पास आरम्भ में केवल बासठ बीघा जमीन थी, मगर पिछले बीस सालों में उनकी जमीनें आज दो सौ तिरपन बीघा कैसे हो गई? ऐसा तो कहीं नहीं दिखाई देता है कि, जमीनों का कहीं भी व्यापार किया गया हो. मेरा मतलब कि, कोई जमीन कम दामों पर खरीदी गई हो और बड़ी कीमत पर बेची गई हो. जमीनें अगर बढ़ी हैं तो केवल खरीद कर ही. दूसरी बात खरीदी गई जमीनों में कुछ नाम लाल स्याही से लिखे गये हैं, कुछ हरी स्याही से लिखे हैं तो बहुत सारे नीली स्याही से भी हैं. ऐसा क्यों?'
युक्लिपटुस को समझाने के लिए मुनीम जी ने बहुत सारे उत्तर दिए. हर तरह से समझाया और अंत में यह कहकर अपने हाथ झाड़ लिए कि, वह तो जमीदार साहब के एक अदना से मुलाजिम थे. उन्होंने वही किया और लिखा है, जैसा कि उन्हें जमींदार साहब से आदेश मिलते थे. तब मुनीम जी के चले जाने बाद, युक्लिपटुस ने हवेली के एक और बहुत पुराने नौकर से पूछा. उससे कहा  कि,
'मैं जब यहाँ रहता था तो मेरे साथ एक गाँव की लड़की भी पढ़ा करती थी. उसका नाम रुकैया था. मगर मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं पता चला. आज सुबह-सुबह मैं जल्दी उठकर जब उसके घर गया था तो उसका घर खंडर पड़ा हुआ है. तुम बता सकते हो उसके बारे में कुछ? क्या हुआ? अब वह कहाँ पर है?
'?'- युक्लिपटुस की ऐसी बात सुनकर उस नौकर के चेहरे पर जैसे हवाईयां-सी उड़ने लगईं.
'?'- युक्लिपटुस ने उसके चेहरे के बदले हुए हाव-भाव देखे तो उसने कहा कि,
'देखो, तुम्हें मालुम है तो मुझे बता दो. मैं वायदा करता हूँ कि, तुम्हारा कोई भी नुक्सान नहीं होगा, बशर्ते तुम खुद भी किसी ऐसे-वैसे कामों में लिप्त नहीं हुए होगे.'
'छोटे जमींदार साहब ! मेरी ऐसी औकात कहाँ है जो मैं, ऐसी-वैसी बातों से कुछ भी सरोकार रखता. जो रखता था, वह तो खुद ही ऊपर वाले को प्यारा हो चुका है. सही बात तो यह है कि, इस हवेली के अंदर होनेवाले कार्यों के प्रति और बड़े ठाकुर के कामों के बारे में, मैं तो क्या ही, सारा गाँव ही जानता है. यही कारण है कि, आज भी इस तरफ गाँव का मनुष्य तो क्या एक काना परिंदा तक सही नज़रों से देखता तक नहीं है. आपकी हवेली के तहखाने में आज भी न जाने कितनी दुखियाओं की आत्माएं, रो रही हैं, तड़पती हैं, आंसू बहाती हैं, चीखती हैं, चिल्ला रही हैं; मगर उनकी सुनने वाला कोई भी नहीं है. आप जो मुनीम जी से पूछ रहे थे, कि हरे, लाल और नीले रंग की स्याही का मतलब क्या है? तो लाल रंग की स्याही से लिखी जमीनें उन लोगों की हैं जिनकी गैर-कानूनी ढंग से हथियाई गई हैं.'
'?'- अपने ईमानदार नौकर से ऐसी अप्रत्याशित बात को सुनकर युक्लिपटुस को अचानक से ऐसा लगा कि, जैसे किसी अपने ने ही उसके मुंह पर लात मार दी है. अपने ही घर में, अपने ही बिछौने पर जिस पर वह बैठा हुआ है, अपने खानदान के खूनी रंग देखकर वह अचानक ही उठकर खड़ा हो गया. बड़ी देर तक वह बुतों समान, मृतक-सा बना खड़ा रहा. फिर अचानक ही धम से वहीं बैठ गया.
काफी देर के बाद युक्लिपटुस के सामने रुकैया की जो दर्दभरी, चीखती-चिल्लाती कहानी निकल कर सामने आई, उसके अनुसार रुकैया के साथ भी वह सब कुछ हुआ था, जो सालों से गाँव की हरेक सुंदर युवती के साथ होता आ रहा था. युक्लिपटुस को अचानक ही याद आया कि, जब काफी दिनों के बाद वह रुकैया से मिला था तो उसके गुम-सुम और चुप, खामोश रहने का कारण भी यही था. जब उसने रुकैया से पूछा था कि, 'उसका पेट क्यों बढ़ रहा है?' तब तक उसके साथ उपरोक्त जघन्य अपराध हो चुका था. फिर जब रुकैया के पिता को पता चला तो वह भी उसके पिता के सामने रोये, गिड़-गिड़ाये थे. लेकिन जब उसकी नहीं सुनी गई तो उसने अदालत में जाने की धमकी दी थी, मगर अदालत में पहुंचने से पहले ही उसे ऊपर वाले की अदालत में भेज दिया गया था. बाद में रुकैया को धमका दिया गया था कि अगर उसने अपना मुंह खोला तो साथ में उसकी मां को भी मार दिया जाएगा. इस तरह से रुकैया चुप रही. शांत रही. अंदर ही अंदर घुटती रही, हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा मरती रही, मगर मुख से उफ़ तक नहीं किया. उसने अपने बच्चे को एक कुंवारी मां बनकर जन्म दिया तो गाँव वालों ने उसे उसकी मां के साथ गाँव से बाहर निकाल दिया. गाँव के बाहर रहते हुए उसने अपने बच्चे की परवरिश की, उसे पाला और उसका नाम 'युक्लिपटुस' इसलिए रखा क्योंकि, उसके बेटे की लम्बाई भी सफ़ेदे के पेड़ के समान ही थी. एक दिन जब उसकी मां भी चल बसी तो दूर गाँव के एक चचेरे भाई ने उसे संभाल लिया. वह उसकी देखभाल करता रहा. मगर बाद में रुकैया भी चल बसी तो उसका लड़का 'युक्लिपटुस' अकेला रह गया.
उपरोक्त सारी बातों की सच्चाई सुनकर युक्लिपटुस की आँखों में स्वत: ही आंसू उस किसान की दशा के समान भर आये कि, जिसकी पकी फसल अचानक ही आग लगाकर बर्बाद कर दी गई हो. युक्लिपटुस यह सब जान और सुनकर ना तो रो सका और ना ही रुकैया के प्रति अपनी कोई भी संवेदनाएं ही दे सका. वह तो समझता था कि इस प्रकार की कहानियां वह आज तक अखबारों, टी. वी. पर और रोजमर्रा की खबरों में सुर्ख़ियों में पढ़ता-सुनता आया था; उसे क्या मालुम था कि, कुंवारी लड़कियों के साथ हुए योनाचार जैसे अपराधों और बेबस मां बनने वाली भोली-भाली युवा लड़कियों के सारे किस्से-गाथाओं की पोथियाँ तो उसकी अपनी हवेली की कोख में बंद कर दी गई हैं. . .'   

  '. . .सोचते हुए युक्लिपटुस की आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा. वह समझ नहीं पाया कि, अचानक से उसकी आँखों के समक्ष छा जानेवाला यह अन्धकार उसके खानदानी जुर्मों के इतिहास के आये हुए काले बादलों की तरफ से है या फिर रुकैया के मन में अपने अनकहे प्यार की अग्नि का जला दीप बुझ जाने के कारण? जब भी वह अब कभी इन सफ़ेदे के ताड़ जैसे गगनचुम्बी पेड़ों को देखा करेगा तो रुकैया की कही हुई यही बात याद किया करेगा कि, 'क्या वह सचमुच ही लम्बा, ताड़-सा, खोखला बांस समान, एक ठठेरा जैसा है, जो अपने ही गाँव की भोली, बाला रुकैया के लिए कुछ भी नहीं कर सका है? क्या उसका ल्म्बापन मात्र देखने ही भर के लिए है?'
'छोटे जमींदार साहब !'
'?'- युक्लिपटुस ने अचानक देखा तो घर का नौकर उससे ही सम्बोधित था.
'ठाकुर साहब, वह जो लम्बा सा लड़का आपका बक्सा अपने सिर पर रख कर, हवेली तक लाया था,  वही रुकैया का लड़का है. मेरा मतलब आपका . . .'
'छोटा भाई. . .?' युक्लिपटुस अपने मन में ही चुपचाप दोहरा गया. नौकर आगे कुछ और कहता, इससे पहले ही उसने नौकर से कहा कि,
'अब तुम जाओ और मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो.'
'?'- नौकर बहुत खामोशी के साथ, अपना सिर झुकाए और यह कहकर कि, 'जी, बहुत अच्छा', कमरे से बाहर चला गया. उसके जाने के पश्चात युक्लिपटुस अपना सिर पकड़कर वहीं सोफे में अंदर तक धंस गया. कड़वे अतीत की ज़ख्मों से सराबोर कहानी ने जैसे सारी हवेली का माहोल भी बोझिल कर दिया था.


बाद में युक्लिपटुस अपने गाँव और हवेली में दो सप्ताह और रुका. इन दो सप्ताहों में उसने जैसे एक क्रांतिकारी काम करके सारे गाँवों वालों को आश्चर्य में ड़ाल दिया. उसके पिता ने जिन-जिन किसानों की जमीनें गलत ढंग से हडप ली थी, उन सबको उसने बाकायदा कागज़ात के साथ उन्हें वापस कर दिया. रुकैया के लड़के 'युक्लिपटुस' की भी जमीन को भी उसने उसे दे दिया. इसके अतिरिक्त, उसने गाँव में एक अच्छा स्कूल खोलने की भी घोषणा कर दी. बाद में उसने रुकैया के लड़के से यह भी कहा कि, 'यह उसकी मर्जी है कि, वह गाँव में ही रहकर अपनी खेतीबाड़ी देखे, पढ़ाई करे अथवा चाहे तो वह उसके साथ शहर भी चल सकता है और शहर में रहते हुए पढ़-लिखकर अपने जीवन में और भी तरक्की कर सकता है. आसमान की ऊंचाइयों से सचमुच एक 'युक्लिपटुस' के वृक्ष के समान ही बातें भी कर सकता है. मैं तुम्हारी मां का उजड़ा हुआ चमन दोबारा बाहरों से तो नहीं सजा सकता हूँ, पर हां तुम्हारे जख्मों पर मरहम रखने की कोशिश जरुर करता रहूंगा.'


अपना गाँव छोड़ने से पहले उसने यह साबित कर दिया था कि, 'माता-पिता के दुष्कर्मों की सजा अगर संतानें उठाती हैं, तो वही संताने उनके दुष्कर्मों को सुकर्मों में बदलने का प्रयास तो कर सकती ही हैं.  रुकैया, उसके प्रतिष्ठित पिता रतनपाल सिंह और रुकैया का लड़का युक्लिपटुस'- ये तीन महत्वपूर्ण जीवन उसकी ज़िन्दगी में आये थे. सवाल यह नहीं है कि, इन तीनों में कौन छोटा, कौन बड़ा और कौन सुप्रतिष्ठित हो सकता है? असली मुद्दा तो यही है कि, इन तीनों में से किसको क्या मिला या समय ने किसकी झोली में क्या ड़ाल दिया है? और यह सब क्यों हुआ? जो हुआ, उसके होने की महज व्याख्या ही की जायेगी अथवा फिर से कभी भी न हो; इस बारे में प्रयत्न भी किये जायेगें. अगर हम सब मिलकर यह प्रयास भी नहीं कर सकते हैं तो रुकैया की कहानी आज जैसे अंतहीन अंत बनकर समाप्त नहीं हुई है, आने वाले कल में न जाने कितनी रुकैया जैसी ग्रामीण बालाओं की कहानियाँ अतीत के अंधेरों में दबती रहेंगी, मिटती रहेंगी और लुप्त होती रहेंगी.
-समाप्त.